भारतीय पौराणिक इतिहास में सती अनुसुईया का नाम बहुत श्रद्धा से लिया जाता है, जिन्होंने अपने सतीत्व के बल पर सृष्टि के त्रिदेव ब्रह्मा, बिष्णु, और महेश तीनों को छोटे-छोटे बालक बना दिया हैं । रामचरित मानस में सति अनुसुईया माता सीता को पति का महत्व बताते हुई कहती हैं-
“एकै धर्म एक व्रत नेमा । काय वचन मन पति पद प्रेमा”
मतलब नारी के लिये एक ही व्रत, एक ही धर्म, एक ही नियम है कि वह अपने मन, वचन, और कर्म से केवल और केवल अपने पति से ही प्रेम करे । इसी भाव से भारतीय नारी अपने पति के दीर्घायु एवं स्वास्थ्य के कामना के लिये कई व्रत करती हैं जिनमें सब से अधिक प्रचलित व्रत ‘करवा चौथ’ (Karwa Chauth) है, जो आज एक व्रत होकर भी एक पर्व के रूप में मनाया जाने लगा है ।
करवा चौथ’ सुहागन स्त्रियों द्वारा किये जाना वाला एक व्रत है, जिसे भारत के विभिन्न हिस्सों में शहरी महिलाओं से लेकर ग्रामीण महिलाएं इसे उत्साह के साथ करती है । इस व्रत में एक विशेष प्रकार के मिट्टी का टोटीदार पात्र उपयोग में लाया जाता है, जिसे करवा कहते हैं । इसी के नाम से इसे करवा चौथ कह देते हैं । ऐसे इसे करक चतुर्थी कहा जाता है । करवा को माता गौरी का प्रतीक भी माना जाता है । वास्तव में माता गौरी को सौभाग्य की देवी मानते हैं । यह व्रत उन्हीं को समर्पित होता है ।
करवा चौथ व्रत करने के पिछे केवल और केवल एक ही उद्देश्य होता है हर पत्नी चाहती हैं कि उसका पति स्वस्थ एवं दीर्घायु हो । इसी कामना को लेकर यह व्रत किया जाता है । इस व्रत पर करवा चौथ की कई कहानियां कही जाती है जिसमें कोई न कोई करवा चौथ का व्रत करती हुई सति नारी अपने पति का जीवन बचाया । किन्तु वास्तव में कब और कैसे प्रारंभ हुआ इस विषय पर बहुत विद्वानों का मत है ।देवासुर संग्राम के समय देवताओं के पत्नियों ने सबसे पहले इस व्रत को किया । बहुत विद्वानों का मत है कि सति सावित्रि द्वारा अपने पति सत्यवान के मृत्यु के पश्चात भी यमराज से जीवित करा ले ने के पश्चात से इस व्रत का प्रारंभ हुआ है ।
पौराणिक कथा के अनुसार सावित्रि नाम की एक सती नारी थी जो मन, वचन और क्रम से केवल और केवल अपने पति की सेवा किया करती थी । एक समय यमराज उनके पति सत्यवान को यमलोक लेने आ गये और सत्यवान का धरती में समय पूरा हो गया कह कर उसे ले जाने लगे अर्थात सत्यवान की मृत्यु हो गई ।
इस पर सावित्रि अपने पति के वियोग में बिलख-बिलख कर रोने लगी और यमराज से अपने पति के प्राण की भीख मांगने लगी किंतु यमराज पर उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ । सावित्रि यमराज से याचना करती हुई यमलोक तक पहुँच गई और अन्न-जल त्याग कर केवल अपने पति के प्राणों की भीख मांगती रही ।
सावित्रि के याचना से यमराज द्रवित हो गया और उसने कहा चूँकि जन्म और मृत्यु हर जीव का निश्चित होता है और सत्यवान का जीवन काल पूर्ण हो गया है इसलिये इसे जीवित करना संभव नहीं किंतु तुम्हारे इस पति प्रेम से मैं बहुत प्रसन्न हूँ, तुम सत्यवान के प्राण के अतिरिक्त कुछ भी वरदान मांग लो ।
सावित्रि अपने पति के प्राण मांगने के बदले में यमराज से खुद बहुपुत्रवती होने का वरदान मांग ली । यमराज प्रसन्नता में तथास्तु कह दिया । तब सावित्रि ने कहा देव आप ने मुझे पुत्रवती होने का वरदान दिया है । मैं एक सति नारी हूँ कभी किसी पराये पुरूष का मुख भी नहीं देखती हूँ, यदि आप मेरे पति के प्राण वापस नहीं किये तो आपका वरदान झूठा हो जायेगा ।
यमराज अपने वचन में बंध चुका था विवश होकर उसे सत्यवान के प्राण लौटाने पड़े । इस दिन संयोग से कार्तिक कृष्ण चतुर्थी था इसलिये इसके बाद से ही नारियां अपने पति के प्राणों की रक्षा के निमित्त अन्न–जल त्याग कर यह व्रत करती हैं ।माता गौरी को सौभग्य की देवी माना जाता है, उन्हीं से कुँवारी कन्यायें पति की इच्छा के लिये पूजा करती है तो सुहागन महिलाएं अपने सौभाग्य के लिये।चूँकि इस व्रत को महिलायें अपने पति के लिये करती हैं और व्रत का परायण अपने पति के हाथों पानी पीकर करती हैं । इससे पति-पत्नी के मध्य संबंध निश्चित रूप और अधिक मजबूत होता है । इसी व्रत के परायण करने के पश्चात महिलायें अपनी सास को उपहार भी देती हैं इससे सास-बहू के संबंधों में मधुरता आती है ।
सास-बहू का संबंध ही परिवार के लिये नींव के समान होता है । यदि सास-बहू के बीच संबंध मधुर होगा तो निश्चित रूप से परिवार खुश हाल होगा । इस प्रकार इस पर्व का धार्मिक महत्व होने के साथ-साथ पारिवारिक महत्व भी है । यदि पति-पत्नी के बीच संबंध अच्छा होगा, दोनों के मध्य सहज प्रेम होगा तो दोनों तनाव रहित जीवन व्यतित करेंगे जिससे निश्चित रूप से पति-पत्नी दोंनो की जीवन प्रत्याशा बढ़ेगी अर्थात दोनों के आयु लंबी होगी । इस प्रकार यह पर्व अपने उद्देश्य में कहीं न कहीं व्यवहारिक रूप से सफल होता है ।