बेघर पंछी ...............एडवोकेट देवेन्द्र मोहन माथुर




 

सुबह कुछ जल्दी ही जाग गया,

टक-टक की आवाज़ आ रही थी।

दरवाज़ा खोलकर देखा, कोई दिखा नहीं।

आवाज़ की दिशा में देखा, खिड़की पर दिखा एक पक्षी

अपनी चोंच से खिड़की पर उकेर रहा था नक्काशी।

मैंने पूछा -"भाई क्या बात है"

बोला: क्या किराये पे मिलेगा? कोई पेड़ घोंसला बनाने के लिए?

अकेला तो कहीं भी रह लेता,

परन्तु घर चाहिए चूज़ों के लिए,

तुम्हारे ही भाइयों ने लूट लिया है,

हमारा जंगल पूरा ही काट दिया है।

बेघर तो कर ही दिया है, 

दाने-पानी के लिए भी तरसा दिया है।


पुण्य कमाने के लिए रख देते हैं,

छत पर थोड़ा दाना थोड़ा पानी।

पर रहने के लिए छत भी तो चाहिए,

यह तो कोई सोचता भी नहीं।

पेट तो भरना ही है,

भीख ही सही, थोड़ा खा-पी लेते हैं,

थोड़ा घर भी ले जाते हैं,

भले ही सर पर छत न हो, पेट में भूख तो है ना?


कभी -कभी सोचता हूँ आत्मघात कर लूँ,

बिजली के तारों पर बैठ जाऊँ,

या पटक दूँ सर मोबाइल के ऊँचे टावर पर।

जैसे सरकार दे देती है कुछ

फाँसी लगाने वाले किसान को,

वैसे ही मिल जाएगा कोई पेड़

मेरे चूज़ों के घोंसले के लिए.. 


सुनकर मैं सुन्न हो गया।

इतना कुछ तो सोचा न था?

जंगल काटकर घर उजाड़ दिया,

इन बेचारों का विचार नहीं किया।

मैंने हाथ जोड़कर उससे कहा,

"सबकी ओर से मैं माफी माँगता हूँ, आत्मघात का विचार त्याग दो, यह दिल से निवेदन है मेरा।

अभी तो इस गमले के पौधे पर,

अपना वन रूम किचन का घर बसा लो,

थोड़ी अड़चन तो होगी परंतु अभी इसी से काम चला लो"


उसने कहा,

"बड़ा उपकार होगा 

परंतु किराया क्या होगा? 

और कैसे चुकाऊँगा"

मैंने कहा-

"तीनों पहर मंगल कलरव सुनूँगा और कुछ नहीं माँगूँगा"


वह बोला "मुझे तो आप मिल गए, पर मेरे भाई बंधुओ का क्या? उन्हें भी तो घर चाहिए, कहाँ रहेंगे वे सब?"


मैंने कहा "अरे! अब लोग जाग रहे हैं,

बड़, पीपल, नीम, गूलर रोप रहे हैं।

धीरे -धीरे बदलाव आ रहा है।

किसी को आत्मघात करने की आवश्यकता अब नहीं है।"


सुनकर पक्षी उड़ गया,

घोंसले का सामान लाने के लिए,

और मैंने मोबाइल उठाया

आपको ये सब बताने के लिए।


पक्षी की टक -टक से 

मेरे मन का द्वार खुल गया।

आप भी अपने मन के कपाट खोलेंगे ना? 

कम से कम एक पेड़ तो रोपेंगे ना? 

आंगन में या गमले में ही सही? 



एडवोकेट देवेन्द्र मोहन माथुर, बापू नगर, जयपुर ।