हमें नाज हॅै :'प्रोफेसर ऑव मेडिसिन' भारतरत्न डॉ. बिधान चंद्र राय

स्वतंत्रता सेनानी, चिकित्सक भारतरत्न से सम्मानित पश्चिम बंगाल के दूसरे मुख्यमंत्री, कायस्थ महाराजा प्रतापदित्य के वंशज कायस्थरत्न  डॉ. बिधान चंद्र राय का जन्मदिन एक जुलाई डॉक्टरर्स डे के रुप मनाया जाएगा ।।

 

डॉ॰ बिधान रॉय को आधुनिक पश्चिम बंगाल का निर्माता माना जाता है।उनके जन्मदिन 1 जुलाई को भारत मे 'चिकित्सक दिवस' के रूप मे मनाया जाता है। उन्हे वर्ष 1961 में भारत रत्न से सम्मनित किया गया था ।डा बिधान रॉय का जन्म खजान्ची रोड बांकीपुर, पटना, बिहार मे एक प्रवासी कायस्थबंगाली परिवार में हुआ था। उनके जन्म स्थान को वर्तमान मे अघोर प्रकाश शिशु सदन नामक विद्यालय मे परिवर्तित कर दिया गया है।

 

माता-पिता के ब्रह्मसमाजी होने से डाक्टर राय पर ब्रह्मसमाज का बाल्यावस्था से ही अमिट प्रभाव पड़ा था। उनके पिता प्रकाशचंद्र राय डिप्टी मजिस्ट्रेट थे, पर अपनी दानशीलता एवं धार्मिक वृत्ति के कारण कभी अर्थसंचय कर सके। ऐसे में विधानचंद्र राय का प्रारंभिक जीवन अभावों के मध्य ही बीता। बी. . परीक्षा उत्तीर्ण कर वे सन् 1901 में कलकत्ता चले गए। वहाँ से उन्होंने एम. डी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्हें अपने अध्ययन का व्यय भार स्वयं वहन करना पड़ता था। योग्यताछात्रवृत्ति के अतिरिक्त अस्पताल में नर्स कार्य करके वे अपना निर्वाह करते थे। अर्थाभाव के कारण डाक्टर विधानचंद्र राय ने कलकत्ता के अपने पाँच वर्ष के अध्ययनकाल में पाँच रुपए मूल्य की मात्र एक पुस्तक खरीदी थी। मेधावी इतने थे कि एल.एम.पी. के बाद एम.डी. परीक्षा दो वर्षों की अल्पावधि में उत्तीर्ण कर कीर्तिमान स्थापित किया। फिर उच्च अध्ययन के निमित्त इंग्लैंड गए। 

विद्रोही बंगाल का निवासी होने के कारण प्रवेश के लिए बिधान रॉय का आवेदन पत्र अनेक बार अस्वीकृत हुआ। बड़ी कठिनाई से वे प्रवेश पा सके। दो वर्षों में ही उन्होंने एम. आर. सी. पी. तथा एफ. आर. सी. एस. परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लीं। कष्टमय एवं साधनामय विद्यार्थीजीवन की नींव पर ही उनके महान् व्यक्तित्व का निर्माण हुआ।स्वदेश लौटने के पश्चात् डाक्टर राय ने सियालदह में अपना निजी चिकित्सालय खोला और सरकारी नौकरी भी कर ली। लेकिन अपने इस सीमित जीवनक्रम से वे संतुष्ट नहीं थे। सन् 1923 में वे सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसे दिग्गज राजनीतिज्ञ और तत्कालीन मंत्री के विरुद्ध बंगाल-विधान-परिषद् के चुनाव में खड़े हुए और स्वराज्य पार्टी की सहायता से उन्हें पराजित करने में सफल हुए। यहीं से इनका राजनीति में प्रवेश हुआ। डाक्टर राय, देशबंधु चित्तरंजन दास के प्रमुख सहायक बने और अल्पावधि में ही उन्होंने बंगाल की राजनीति में प्रमुख स्थान बना लिया। सन् 1928  में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन की स्वागत समिति के वे महामंत्री थे। डा. राय राजनीति में उग्र राष्ट्रवादी नहीं वरन् मध्यम मार्गी थे। लेकिन सुभाषचंद्र बोस और यतीन्द्रमोहन सेनगुप्त की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में वे सुभाष बाबू के साथ थे। वे विधानसभाओं के माध्यम से राष्ट्रीय हितों के लिए संघर्ष करने में विश्वास करते थे। इसीलिए उन्होंने 'गवर्नमेंट ऑव इंडिया ऐक्ट' के बनने के बाद स्वराज्य पार्टी को पुन: सक्रिय करने का प्रयास किया। सन् 1934 में डाक्टर अंसारी की अध्यक्षता में गठित पार्लमेंटरी बोर्ड के डा. राय प्रथम महामंत्री बनाए गए। महानिर्वाचन में कांग्रेस देश के सात प्रदेशों में शासनारूढ़ हुई। यह उनके महामंत्रित्व की महान् सफलता थी।

 

 

विश्व के डाक्टरों में डाक्टर राय का प्रमुख स्थान था। प्रारंभ में देश में उन्होंने अखिल भारतीय ख्याति पं. मोतीलाल नेहरू, महात्मा गांधी प्रभृति नेताओं के चिकित्सक के रूप में ही अर्जित की। वे रोगी का चेहरा देखकर ही रोग का निदान और उपचार बता देते थे। अपनी मौलिक योग्यता के कारण डा बिधान रॉय सन् 1909 में 'रॉयल सोसायटी ऑव मेडिसिन', सन् 1925 में 'रॉयल सोसायटी ऑव ट्रापिककल मेडिसिन' तथा 1940 में 'अमरीकन सोसायटी ऑव चेस्ट फ़िजीशियन' के फेलो चुने गए। डा. राय ने सन् 1923 में 'यादवपुर राजयक्ष्मा अस्पताल' की स्थापना की तथा 'चित्तरंजन सेवासदन' की स्थापना में भी उनका प्रमुख हाथ था। कारमाइकेल मेडिकल कालेज को वर्तमान विकसित स्वरूप प्रदान करने का श्रेय डा. राय को ही है। वे इस कालेज के अध्यक्ष एवं जीवन पर्यंत 'प्रोफेसर ऑव मेडिसिन' रहे।

 कलकत्ता एवं इलाहाबाद विश्वविद्यालयों ने डा. राय को डी. एस-सी. की सम्मानित उपाधि प्रदान की थी। वे सन् 1939से 1945  तक 'ऑल इंडिया मेडिकल काउंसिल' के अध्यक्ष रहे। इसके अतिरिक्त वे 'कलकत्ता मेडिकल क्लब', 'इंडियन मेडिकल एसोसिएशन,' 'जादवपुर टेक्निकल कालेज', 'राष्ट्रीय शिक्षा परिषद्', भारत सरकार के 'हायर इंस्टीट्यूट ऑव टेक्नालाजी', 'ऑल इंडिया बोर्ड ऑव वायोफिज़िक्स', तथा यादवपुर विश्वविद्यालय के अध्यक्ष एवं अन्यान्य राष्ट्रीय स्तर को संस्थाओं के सदस्य रहे। चिकित्सक के रूप में उन्होंने पर्याप्त यश एवं धन अर्जित किया और लोकहित के कार्यों में उदारतापूर्वक मुक्तहस्त दान दिया। बंगाल के अकाल के समय आपके द्वारा की गई जनता की सेवाएँ अविस्मरणीय हैं।

 

 

डॉॅ विधानचंद्र राय वर्षों तक कलकत्ता कारपोरेशन के सदस्य रहे तथा अपनी कार्यकुशलता के कारण दो बार मेयर चुने गए। उन्होंने कांग्रेस वकिंग कमेटी के सदस्य के रूप में सविनय अवज्ञा आंदोलन में सन् 1960 में जेलयात्रा की। वे सन् 1942 से दो साल तक कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे तथा विश्वविद्यालयों की समस्याओं के समाधान में सदैव सक्रिय योग देते रहे।

 

डा बिधान रॉय को एक बार उत्तर प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया पर उन्होंने स्वीकार नहीं किया। प्रदेश की राजनीति में ही रहना अधिक उपयुक्त समझा। वे बंगाल के स्वास्थ्यमंत्री नियुक्त हुए।  डा. प्रफुल्लचंद्र घोष के त्यागपत्र देने पर प्रदेश के मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। विभाजन से त्रस्त तथा शरणार्थी समस्या से ग्रस्त समस्याप्रधान प्रदेश के सफल संचालन में उन्होंने अपूर्व राजनीतिक कुशलता एवं दूरदर्शिता का परिचय दिया। उनके जीवनकाल में वामपंथी अपने गढ़ बंगाल में सदैव विफलमनोरथ रहे। बंगाल के औद्योगिक विकास के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहे। दामोदर घाटी निगम और इस्पात नगरी दुर्गापुर बंगाल को डाक्टर राय की महती देन हैं।

 

 

35 वर्ष की यौवनावस्था में ही स्वेच्छा ब्रह्मचर्य व्रत धारण करनेवाली माँ अधोरकामिनी राय के सुपुत्र डाक्टर विधानचंद्र राय आजीवन अविवाहित रहे। उनमें कार्य करने की अद्भुत क्षमता, उत्साह और शक्ति थी। वे निष्काम कर्मयोगी थे।  रोग की नाड़ी की भाँति ही उन्हें देश की नाड़ी का भी ज्ञान था। राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी बहुमुखी सेवाएँ थीं। देश के औद्योगिक विकास, चिकित्साशास्त्र में महत्वपूर्ण अनुसंधान कार्य तथा शिक्षा की उन्नति में उनका प्रमुख कृतित्व था। संघर्षमय जीवन को उनकी राजनीति और चिकित्सा के क्षेत्र में महान् उपलब्धियों एवं देश को प्रदत्त महती सेवाओं के लिए उन्हें सन् 1961 में राष्ट्र के सर्वोत्तम अलंकरण 'भारतरत्न' से विभूषित किया गया। डाक्टर राय बंगाल प्रदेश कांग्रेस के प्राण और कांग्रेस कार्यसमिति के प्रभावशाली सदस्य रहे। राजर्षि टंडन और जवाहरलाल नेहरू के मध्य तथा बाद में नेहरू जी और रफी अहमद किदवई के मध्य समझौता कराने में आपका प्रमुख हाथ रहा।

 

 

 

बिधानचंद्र राय एक महान विभूति थे। एक वरिष्ठ चिकित्सक, शिक्षाशास्त्री, स्वतंत्रता सेनानी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता और आजाद हिन्दुस्तान में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के रूप में एक नामचीन हस्ताक्षर हैं। डॉ राय ने बिहार में जन्म लेकर 20 वर्ष की आयु तक वहीं शिक्षा पाई, फिर अधिकतर बंगाल में रहते हुए और काम करते हुए वे समयसमय पर असम भी गए। इस तरह डॉ राय खुद को तीनों प्रांतों का मानते थे। वे गर्व से स्वीकारते कि जैसे वे आज हैं, इसलिए हैं, क्योंकि तीनों प्रांतों के लोगों के बीच समान रूप से रहे हैं और उन्हें समान रूप से भलीभांति जानते हैं। उनका स्पष्ट विचार था कि वास्तव में अंतर्प्रांतीय विवादों का कोई वास्तविक आधार नहीं है। उन्होंने साबित कर दिया कि व्यक्ति वंश, जात, रंग, रूप आदि से चलते नहीं, बल्कि अपने गुणों के चलते आदर पाता है। 

संस्कृत के कवि ने ठीक ही लिखा हैगुणः सर्वत्र पूजयन्तेमेरी मान्यता है कि आदमी मुफलिसी में भी महान बन सकता है। सिर्फ शर्त यही है कि वह सद्गुणों के विकास के लिए सतत्प्रयत्नशील रहे। बिधान भी ऐसे ही महान इंसान थे। गरीबी और बीमारी के साथ जीवन भर संघर्ष करते हुए वह कभी निराश या उदास नहीं हुए। अपने घर में पांच भाईबहनों में वे सबसे छोटे थे। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से गणित में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लिया। यहां प्रथम वर्ष निर्बाध बीता, किंतु कष्टों से रहित नहीं रहा। कॉलेज के पांच वर्ष में केवल पांच रुपये की किताब ही खरीद पाए। सन्‌1904 में जब बंगाल विभाजन की घोषणा हुई तब बिधान मेडिकल कॉलेज में थे। बंगाल में अरविंद घोष, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय तथा बिपिनचंद्र पाल की रहनुमाई में राष्ट्रीय आंदोलन मूर्त रूप ले रहा था। 

आंदोलन से प्रभावित बिधान ने हृदय में उठने वाली भावनाआें को काबू किया। उन्हें आभास था कि व्यावसायिक योग्यता प्राप्त करके वे राष्ट्र की बेहतर सेवा कर सकेंगे। स्नातक होने के तुरंत बाद प्रांतीय स्वास्थ्य सेवा में उन्हें नौकरी मिल गई। कठोर परिश्रम और अटूट लगन से उन्होंने एमडी की प़ढाई पूरी की, फिर आगे प़ढने के लिए इंग्लैंड जाने का इरादा किया। इरादा नेक था, पर दरिद्रता ने अभी उनका दामन नहीं छ़ोडा था। उन्होंने दो साल तीन माह का अवकाश लेकर और अपनी अल्प आय में से बचाए गए कुछ सौ रुपये लेकर इंग्लैंड के लिए रवाना हुए। दो साल तीन महीने में ही सेंट बार्थोलोम्यूस से एमआरसीपी और एफआरसी एस की परीक्षा उत्तीर्ण की।

 

इंग्लैंड से लौटकर डॉ राय ने पहले कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में और फिर कैम्पबैल मेडिकल स्कूल तथा पुनः कारमाइकेल मेडिकल कॉलेज में अध्यापन किया। बाद में दोस्तों से पैसे उधार लेकर मामूली स्तर पर डॉक्टरी करना शुरू किया। प्रेक्टिस करते हुए यहां जनता की दुर्दशा, गरीबी और अभावों से उनका साक्षात्कार हुआ। देशवासियों की दयनीय दशा देखकर उनका हृदय हिल गया। उनकी हर मुमकिन मदद करने की धुन ही उनके जीवन का मकसद बन गया। चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा की व्यवस्था में डॉ राय का योगदान सर्वविदित है।डा बिधान राय का कहना था किजब तक लोग शरीर मन से स्वस्थ सशक्त नहीं होंगे, तब तक स्वराज स्वप्न ही रहेगा। यह तब तक नहीं होगा, जब तक माताआें के पास बच्चों की देखभाल करने के लिए अच्छा स्वास्थ्य और बुद्धिमत्ता नहीं होगी।सन्१९२६ में महिलाआें और बच्चों के लिए चित्तरंजन सेवा सदन खोला गया। सन्१९२२ से १९२९ तक संपादक बोर्ड के सदस्य के रूप में कलकत्ता मेडिकल जर्नल के लिए काम करते रहे। वे सन्१९२९ में अखिल भारतीय मेडिकल कांफ्रेंस के अध्यक्ष थे और सन्१९४३ में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के प्रथम अशासकीय अध्यक्ष बने। स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधा की समस्याआें को सुलझाने में उन्होंने अमूल्य योगदान दिया। राजनीति में आने के बहुत पहले से ही डॉ राय को शिक्षा के प्रति लगाव था। वे सन्1916  में कलकत्ता विश्वविद्यालय के फैलो चुने गए। इससे उनका संबंध जीवनपर्यंत बना रहा। सन्1930 में छात्रों के सविनय अवज्ञा आंदोलन में शामिल होने पर पाबंदी लगाने के चलते कुछ समय के लिए अलग हो गए थे। सन्1923 में बंगाल विधानसभा के लिए चुनाव ल़डा। सन्1942 में वे राष्ट्रीय शैक्षिक परिषद के अध्यक्ष बने। 16 सितंबर 1955  को उन्होंने जादवपुर विश्वविद्यालय प्रस्ताव पेश किया। ख़डगपुर में आईआईटी की स्थापना में उन्होंने सहयोग दिया। रवींद्र भारती विश्वविद्यालय की स्थापना में सहायक बने। डॉ राय व्यावसायिक प्रशिक्षण, ग्राम विकास तथा ग्रामीण प्रदेशों में उच्च शिक्षा के लिए ग्रामीण विश्वविद्यालयों की श्रृंखला की स्थापना के हिमायती थे। सांस्कृतिक मूल्यों के साथसाथ वैज्ञानिक उन्नति और आर्थिक विकास में अटल आस्था होने के कारण डॉ राय ने विज्ञान, तकनीकी, कृषि, मानविकी और नृत्य आदि अन्य कलाआें के लिए एकएक नए विश्वविद्यालय की स्थापना की। उन्होंने संस्कृत का अनिवार्य विषय के रूप में अध्ययन का समर्थन किया। वह मानते थे कि यह छात्रों को राष्ट्रीय विचारधारा एवं संस्कृत से अवगत कराने में सफल होगा।

डॉ राय सन्1942 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति नियुक्त हुए। सन्1944 में उनको डॉक्टर ऑफ साइंस की उपाधि दी गई। जनवरी 1957 में उन्हें भारतीय विज्ञान कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। मई सन्1927 में जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस बर्मा के मांडले जेल में कारावास के बाद कलकत्ता लौटे तो डॉ राय से उनका निकट संपर्क हुआ। सुभाष के सिद्धांत, ‘स्वतंत्रता जीवन है’, की उन पर गहरी छाप प़डी। वे मानते थे कि यदि राजनैतिक स्वतंत्रता पाकर भी आर्थिक दासता और आत्मघाती पारस्परिक घृणा से लोग मुक्त नहीं हो पाते तो उनके लिए पराधीन रहना बेहतर है। डॉ राय का मत है कि भारतवासियों को समस्त संकीर्णता त्यागकर सभी मोचा] पर भारत की विजय के लिए द़ृढता से आगे ब़ढना चाहिए। बीस के दशक के आरंभिक वषा] में डॉ राय नेहरू परिवार के नजदीक होकर उनके सदस्य जैसे बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू को रसगुल्लों का बहुत शौक था। जब भी वे कलकत्ता आते, डॉ राय उन्हें कुछ रसगुल्ले अवश्य भेजते। उनकी मित्रता विनोदपूर्ण प्रणों से भरपूर थी। परिहास और प्रसन्न मुद्रा के कारण उनकी बातचीत ब़डी मनोहर होती थी। देशबंधु चित्तरंजन दास की प्रेरणा से फारवर्ड समूह के अखबारों में रुचि लेने लगे और फारवर्ड के अध्यक्ष भी बने। इनके नेतृत्व में इसने कांग्रेस तथा बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन का निडरता से समर्थन किया। पत्रकारिता में डॉ राय की रुचि अखबारों और समाचार एजेंसियों को प्रोत्साहन देने तक सीमित नहीं थी। उनके उपकुलपति काल में ही सन्‌ 1951 में पत्रकारिता की पाठ्यक्रम के रूप में शुरुआत हुई। वे भारतीय पत्रकार संघ के अध्यक्ष थे और मुख्यमंत्री बनकर भी उन्होंने अपनी यह सदस्यता जारी रखी।

 

 

डॉ राय विचारधारा से आजीवन कांग्रेसी और गांधीवादी रहे। सन्‌ 1925 में दार्जिलिंग में गांधीजी से डॉ राय की भेंट हुई तो दोनों में तुरंत दोस्ती हो गई। उन्हें गांधीजी से वैसा ही आध्यात्मिक मार्गदर्शन मिला, जैसा उन्हें अपने मातापिता से मिला था। जब पुणे में पर्णकुटी में गांधीजी उपवास कर रहे थे, तब डॉ राय उनके साथ थे। बाद में गांधीजी ने  ‘भारत छ़ोडो आंदोलनमें बंदी बनाए जाने के बाद पुणे मेंयथासामर्थ्यउपवास किया तो उन्होंने डॉ राय से अपनी देखभाल करने को कहा। आगामी वर्षो में डॉ राय गांधीजी के घनिष्ठ मित्र और निजी चिकित्सक बन गए पर उन्होंने कभी उनका अंधानुकरण नहीं किया। जब भी वे उनके सिद्धांत या दर्शन से असहमत होते तो उनसे बहस करते। डा राय   बंगाल के राजनैतिक मंच के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गए। शुरू में उन्होंने किसी सियासी चर्चा में भाग नहीं लिया। उनकी सबसे ज्यादा रुचि शिक्षा और चिकित्सा की समस्याआें में थी। उन्होंने हुगली के प्रदूषण के कारणों और भविष्य में इसकी रोकथाम के तरीकों की जांच के लिए समिति गठन का प्रस्ताव पेश किया।  देशबंधु की मृत्यु के बाद दल के उपनेता बनाए गए। बाद में मेयर बने और महापालिका ने निःशुल्क शिक्षा, निःशुल्क चिकित्सा, स़डकों और रोशनी की बेहतरी और जल वितरण की सुविधा ब़ढाने के लिए अधिकाधिक प्रयास किया। अस्पतालों और धर्मार्थ दवाखानों को आर्थिक सहायता देने के नियम बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। उन्होंने देशबंधु के मानवतावादी दर्शन के साथ विशेष निजी योगदान भी दिया।

 

डॉ राय  अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य चुने गए थे। विरोध तथा संघर्ष से स्वयं को अलग रखते हुए सभी नेताओं को अपनी गंभीरता, व्यवहार कुशलता और दलीय निष्पक्षता द्वारा गहराई तक प्रभावित किया। उन्होने बंगाल में सविनय अवज्ञा आंदोलन का संचालन किया। बाद में कुछ कारणों की वजह से राजनीति से उनका मन उब गया लेकिन गांधीजी की सलाह पर मुख्यमंत्री का दायित्व संभाला। राज्यपाल सी गोपालाचारी ने उन्हें पद की शपथ दिलाई। पद स्वीकार करके डॉराय संकटों और विरोधियों से डरे नहीं, बल्कि अडिग रहे और डटकर सामना किया। शांत और गंभीर रहकर हर संकट का सामना करने का दृढ निश्चय करके तीन साल में ही वे अराजकता मिटाने में कामयाब हो गए, साथ ही अपने प्रशासन की प्रतिष्ठा और सम्मान को भी बरकरार रखा।