ग़ज़ल
मजबूरियाँ हमें तड़पाती कभी-कभी।
लाचारियाँ फितरत दिखाती कभी-कभी।
है दाग़ इस जहान गरीबी मेरे ख़ुदा
उसकी फुगां ए भूख रुलाती कभी-कभी।
उजड़ा चमन उदास है बेजान ठूंठ सा, इक नूर ए गुल बाग खिलाती कभी-कभी।
रिश्ते वही रखो जो ख़ुशी से निभा सको,
टूटे दिलों की चीख डराती कभी-कभी।
हैं हौसले बुलंद तो अब डर हमें कहाँ,
जग जीतने के सपन सजाती कभी-कभी।
कोई न पाप में अब आएगा साथ ही,
करनी ख़ुद बन कर सज़ा आती कभी-कभी।
हमने उसे ही देखा है देखा नहीं ख़ुदा,
माँ की दुआ ही कष्ट मिटाती कभी-कभी।
कायस्थ टुडे के 1 जुलाई 2022 के अंक से साभार