मजबूरियाँ हमें तड़पाती कभी-कभी........रंजना माथुर

 


ग़ज़ल 

 

 

मजबूरियाँ हमें तड़पाती कभी-कभी।

 

लाचारियाँ फितरत दिखाती कभी-कभी।

 

 

है दाग़ इस जहान गरीबी मेरे ख़ुदा

 

उसकी फुगां भूख रुलाती कभी-कभी।

 

 

 

उजड़ा चमन उदास है बेजान ठूंठ सा,  इक नूर गुल बाग खिलाती  कभी-कभी।

 

 

 

रिश्ते वही रखो जो ख़ुशी से निभा सको,

 

टूटे दिलों की चीख डराती कभी-कभी।

 

 

 

हैं हौसले बुलंद तो अब डर हमें कहाँ,

 

जग जीतने के सपन सजाती कभी-कभी।

 

 

कोई पाप में अब आएगा साथ ही,

 

करनी ख़ुद बन कर सज़ा आती कभी-कभी।

 

 

हमने उसे ही देखा है देखा नहीं ख़ुदा,

 

माँ की दुआ ही कष्ट मिटाती कभी-कभी।

कायस्थ टुडे के 1 जुलाई 2022 के अंक से साभार