तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।”






 हालाकि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के निधन को लेकर आज भी इतिहासकार एकमत नहीं है ।लेकिन 18 अगस्त, 1945 को उनकी मृत्यु एक विमान दुर्घटना में हुई ऐसा इतिहास के पन्नों पर है  । यह अलग तथ्य है कि नेताजी के निधन को लेकर अधिकारिक दस्तावेज रिकार्ड पर नहीं है ।

 देश आज सुभाष चंद बोस को श्रद्वाजंलि दे रहा है । एक मध्य वर्गीय परिवार में सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 में कटक ( उड़ीसा ) में हुआ । पिता जानकीनाथ जाने माने अधिवक्ता थे वहीं माताजी धार्मिक विचारों से ओतप्रोत थी । शिक्षा के प्रति समपर्ण सुभाष चंद को घुटटी में मिला । जिसका असर बहुत जल्द देखने को मिला जब उन्होने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया । कॉलेज में रहते हुए भी वह स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लिया जिसका खामियाजा उन्हे महाविघालय से निष्कासन से भुगतना पडा । बावजूद वे अपने कदम से डिगे नहीं ओर अपने रास्ते पर बढते गए । 


1920 में वह उन गिने – चुने भारतीयों में से एक थे, जिन्होंने आई.सी.एस. परीक्षा उत्तीर्ण की । 1921 में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य बने । पुन: 1939 त्रिपुरा सेशन कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये । ” तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।” सुभाष चंद बोस द्वारा यह नारा देने के बाद सर्वसमाज उनके साथ खडा हो गया । 

भारतीय नागरिक सेवा की परीक्षा में बैठने के लिए लंदन गए और उस परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया । साथ ही साथ उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम.ए. किया । क्योंकि वह एक राष्ट्रवादी थे इसलिए ब्रिटिश अंग्रेजों के राज्य में काम करने से इनकार कर दिया । सुभाष चंद बोस ने भारतीय राष्ट्रीय संग्राम में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया । उन्होंने महात्मा गाँधी के नेतृत्व में देशबंधु चितरंजनदास के सहायक के रूप में कई बार स्वयं को गिरफ्तार कराया । कुछ दिनों के बाद उनका स्वास्थ्य भी गिर गया । परन्तु उनकी दृढ इच्छा शक्ति में कोई अन्तर नहीं आया ।उनके अन्दर राष्ट्रीय भावना इतनी जटिल थी कि दूसरे विश्वयुद्ध में उन्होंने भारत छोड़ने का फैसला किया । वह जर्मन चले गए और वहाँ से फिर 1943 में सिंगापुर गए जहाँ उन्होंने इण्डियन नेशनल आर्मी की कमान संभाली ।



जापान और जर्मनी की सहायता से उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के लिए एक सेना का गठन किया जिसका नाम उन्होंने ” आजाद हिन्द फौज ” रखा । कुछ ही दिनों में उनकी सेना ने भारत के अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह नागालैण्ड और मणिपुर में आजादी का झण्डा लहराया ।

 जर्मनी और जापान की द्वितीय विश्वयुद्ध में हार के बाद आजाद हिन्द फौज को पीछे हटना पड़ा । किन्तु उनकी बहादुरी और हिम्मत यादगार बन गयी । आज भी हम ऐसा विश्वास करते हैं कि भारत को आजादी आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों की बलिदानों के बाद मिली है ।