भक्त और भगवान का आत्मीय स्नेह

 


ग्वालियर के निकट के एक वैष्णव कायस्थ परिवार के सदस्य थे त्रिपुरारी दास. राजा के यहाँ उनके पिताजी नौकरी करते थे. वे गोवर्धन के श्रीनाथ जी के परम भक्त थे. अक्सर वहाँ जाया करते थे. उनके साथ त्रिपुरारी भी जाते थे. आते जाते रहने से उनका मन भगवान के श्री विग्रह में लग गया और एक दिन उन्होंने वहीं गोवर्धन में श्रीनाथ जी की सेवा में रहने का निश्चय कर लिया. परिवार ने बहुत समझाया पर माने नहीं. आखिर पिता जी उन्हें गुसाईं विट्ठलाचार्य जी के पास छोड़ गये. धीरे धीरे नाथ जी की सेवा करते करते भक्त भगवान में अलौकिक बंधन हो गया. एक दिन त्रिपुरारी के पिता का निधन हो गया. गुसाईं जी ने त्रिपुरारी को समझा कर घर भेज दिया कि भगवत् सेवा तो घर रह कर भी हो सकती है. त्रिपुरारी घर आ गये किंतु उनका मन श्री विग्रह में ही लगा रहता था. वहाँ के शासक ने पिता की जगह उन्हें नौकरी पर रख लिया. 

त्रिपुरारी का नियम था कि सर्दी शुरू होने पर वो श्रीनाथ जी के लिये हर वर्ष रेशमी और ऊनी वस्त्र मिला कर एक बेहतरीन सदरी बनवा कर भेंट किया करते थे. काल के प्रभाव में एक दिन राजा ने किसी बात पर रुष्ट होकर त्रिपुरारी को सेवा से निकाल दिया और उनकी समस्त धन संपत्ति जब्त कर ली. गरीबी की स्थिति आ गयी. ऐसे में सर्दी की शुरुआत होने को आयी. अब त्रिपुरारी की चिंता बढने लगी कि मेरे पास तो एक कौड़ी तक नहीं है इस बार ठाकुर जी का वस्त्र कैसे तैयार होगा. सोचते सोचते उनकी निगाह घर में पड़ी एक पीतल की पुरानी स्याही की दवात पर पड़ी. कायस्थों का उस दौर में एकमात्र सहारा दवात और कलम ही होता था. पीतलिये के पास वो बाजार में गये और उस दवात को बेच कर उससे एक मोटे लट्ठे का कपड़ा खरीद लिया और घर लाकर उसे रंग लिया. संयोग से ही दूसरे ही दिन उनके गाँव में श्रीनाथ मंदिर का एक कर्मचारी किसी कार्य वश आया और जाते समय त्रिपुरारी से मिलने को आ गया. 

त्रिपुरारी ने बड़े ही संकोच से उसे यह कपड़ा देते हुये निवेदन किया कि इस मंदिर के कोठारी जी को दे देना और हाँ उनसे यह ताकीद कर देना कि इस भेंट का पता गुसाईं जी को न चले. सेवक ने कपड़ा कोठारी को दे दिया. कोठारी ने देखा कि यह बहुत साधारण कपड़ा है ठाकुर जी के तो काम का है नहीं अत: उसे नाथ जी की पोशाकों  को रखने के लिए नीचे बिछा दिया.एक दिन श्रीनाथ जी को गर्म वस्त्र धारण करवाते समय श्रीनाथ जी विट्ठल जी से बोले गुसाईं जी इन पोशाकों से तो मेरी ठंड जा ही नहीं रही. गुसाईं जी ने ऊपर से कंबल ओढ़ा दिया. फिर भी ठाकुर कांपते रहे. अंगीठी जलाई, दो दो रजाई रखी कोई फर्क नहीं पड़ा.

गुसाईं जी समझ गये. ठाकुर कोई लीला कर रहे हैं और अपने किसी भक्त को अनुग्रहित करना चाहते हैं. उन्होंने कोठारी को बुलवाया और कहा देखो बही देख कर बताओ इस बार किस किस की पोशाक ठंड हेतु आयी हैं. कोठारी ने सब नाम पढ़ दिये. गुसाईं जी बोले इस बार त्रिपुरारी की पोशाक नहीं आया. कोठारी ने बताया कि इस बार पोशाक नहीं भेज कर एक साधारण रेजे का कपड़ा रंग कर भेजा था जो मैने पोशाकों वाले संदूक में नीचे बिछा दिया है.गुसाईं जी ने फौरन वो कपड़ा निकलवाया, मंदिर के दर्जी को बुला कर तुरंत अंगरखा सिलवाया और श्रीनाथ जी को धारण करवा कर पूछा जै जै अब तो आपकी ठंड गायब हो गयी होगी. श्रीजी ने मुस्कराकर कहा हां गुसांईजी अब तो ठंड कतई नहीं लग रही.ऐसा पावन संबंध होता है भक्त और भगवान का.पुष्टि मार्ग में यह मान्यता है कि उस दौर में बल्लभाचार्य जी पुत्र श्री विट्ठल गोस्वामी और श्रीनाथ विग्रह में आपस में संवाद होते रहते थे.----अरविंद कुमारसंभव