कायस्थ गौरव कनाई लाल दत्त



 आज़ादी के महानायक  भारत की आज़ादी के लिए फाँसी के फंदे पर झूलने वाले कनाईलाल दत्त,भारत की आज़ादी के लिए फाँसी के फंदे पर झूलने वाले कनाईलाल दत्त,संस्कृति‘कनाईलाल दत्त’ 20 साल का ऐसा क्रांतिकारी जिसकी शवयात्रा में उमड़ पड़ा था पूरा कलकत्ता, समर्थक ने अस्थियां तक खरीद ली थीं…

  जिले के चंद्रनगर में इस नायक का जन्म हुआ था। नाम रखा गया कनाईलाल दत्त। कानाई के पिता चुन्नीलाल दत्त ब्रिटिश भारत सरकार सेवा में बम्बई कार्यरत थे। यही कोई पांच वर्ष की आयु में कनाई अपने पिता के पास बम्बई चले गए। यहीं उनकी आरंभिक शिक्षा शुरू हुई। वे भले ही बम्बई में बढ़ रहे थे मगर उनकी जड़ें आज भी बंगाल के चंद्रनगर से जुडी थीं, जो समय समय पर इनको अपनी ओर खींचती। आखिरकार कानाई ने अपनी मातृभूमि की पुकार सुन ही ली तथा वो वापस चंद्रनगर आगए। यही से उन्होंने हुगली कॉलेज से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की।हालांकि ब्रिटिश सरकार की सेवा में कार्यरत पिता का पुत्र पर अलग असर पड़ना चाहिए था किन्तु ऐसा नहीं हुआ। कनाईलाल के मन में बचपन से ही देश को आजादी दिलाने के लिए कुछ कर गुजरने की ललक जाग गई। छोटी उम्र से ही उनकी राजनीतिक गतिविधियां बढ़ गईं थीं, परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने उनकी डिग्री रोक दी।


मगर इसका कनाई पर कोई खास असर नहीं पड़ा। उन्होंने अपनी मंजील तभी तय कर ली थी जब वो प्रोफेसर चारुचंद्र राय के प्रभाव में आए। प्रोफेसर राय वही थे जिन्होंने चंद्रनगर में ‘युगांतर पार्टी’ की स्थापना की थी। कुछ पार्टी से जुड़ने के बाद कनाईलाल का संपर्क कुछ अन्य क्रान्तिकारियों से भी हुआ। बाद में इन्हीं की सहायता से कानाई ने पिस्तौल चलाना और गोली का निशाना साधना सीखा।सत्रह वर्ष की आयु में जहां लोग खुद को बच्चा मान कर भविष्य की चिंता फिक्र से कोसों दूर होते हैं वहीं कनाईलाल ने इस उम्र में भारत मां को गुलामी की जंजीरों से आजाद करने के लिए हाथों में विद्रोह की मशाल थाम ली थी। सन 1905 के ‘बंगाल विभाजन’ विरोधी आन्दोलन में कनाईलाल ने आगे बढ़कर भाग लिया तथा वे इस आन्दोलन के नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के भी सम्पर्क में आये।

बी.ए. की परीक्षा समाप्त होने के बाद कनाईलाल ने कलकत्ता का रुख किया। यहां इनकी भेंट प्रसिद्ध क्रान्तिकारी बारीन्द्र कुमार घोष से हुई तथा कानाई बारीन्द्र घोष के दल में सम्मिलित हो गए।एक सम्मानित अंग्रेज अधिकारी का पुत्र अब क्रांतिकारियों के साथ उस माकन में रहने लगा अस्त्र-शस्त्र और बम आदि रखे जाते थे। 1907 बिताने के साथ ही उस साल की शुरुआत हुई जिसे भारत की आजादी के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया। ये वही साल था जब किशोरों ने अपनी मांओं के आंचल और जीवन के सुख का मोह त्याग कर भारत माता को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने का प्रण ठाना और अपने खून से इंकलाब लिख दिया।


year  1908, शाम थी 30 अप्रैल की, किंग्सफोर्ड और उसकी पत्नी क्लब में पहुंचे। ये वही किंग्सफोर्ड था जो उनदिनों कलकत्ता में चीफ प्रेंसीडेसी मजिस्ट्रेट के पद पर था। वह बहुत सख्त और क्रूर अधिकारी था। किंग्सफोर्ड देश भक्तों, विशेषकर क्रांतिकारियों को बहुत तंग करता था। उन पर वह कई तरह के अत्याचार करता। एक तरह से उसने क्रांतिकारियों का जीना दुर्लभ कर रखा था। रात्रि के साढे़ आठ बजे मिसेज कैनेडी और उसकी बेटी अपनी बग्घी में बैठकर क्लब से घर की तरफ आ रहे थे। उनकी बग्घी का रंग लाल था और वह बिल्कुल किंग्सफोर्ड की बग्घी से मिलती-जुलती थी। खुदीराम बोस तथा उसके साथी ने किंग्सफोर्ड की बग्घी समझकर उस पर बम फेंक दिया। देखते ही देखते बग्घी के परखचे उड़ गए। उसमें सवार मां बेटी दोनों की मौत हो गई। क्रांतिकारी इस विश्वास से भाग निकले कि किंग्सफोर्ड को मारने में वे सफल हो गए है।

इसी बीच नोरेंद्र को खबर मिली कि कनाईलाल दत्त का साथी सत्येन बोस बीमार पड़ गया है तथा वो नोरेंद्र से मिल कर ये बताना चाहता है कि उसे भी उसकी तरह अंग्रेजों का मुखबिर बनना है। नोरेंद्र गोसाईं  इस बात से खुश था कि उसे अपने जैसा एक और मिल गया है। इसी प्रसन्नता के साथ वो सत्येन से मिलने अस्पताल पहुंचा। नोरेंद्र गोसाईं  सत्येन के पास बैठा था। और बगल में ही कानाईलाल भी बीमारी का बहाना बनाए लेते थे। ये सत्येन और कनाईलाल की सोची समझी चल थी। कनाई का इशारा पाते ही सत्येन ने नोरेंद्र पर गोली चला दी, इसके साथ ही फिर कानाईलाल ने भी फायर कर गद्दार नोरेंद्र गोसाईं  को वहीं ढेर कर दिया। वहां कड़ी पुलिस कुछ देर के लिए समझ ही नहीं पाई कि यहां क्या और कैसे हुआ।

बाद में दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। कनाईलाल को अपील करने की इजाजत नहीं दी गई। उन्हें मृत्युदंड मिला। 10 नवम्बर, 1908 को कनाईलाल दत्त ने कलकत्ता में फांसी के फंदे पर झूलते हुए खुद को देश के लिए कुर्बान कर दिया।जिस कालीघाट पर कनाईलाल का अंतिम संस्कार हुआ वहां एकत्रित जनसैलाब का दृश्य बंगाल के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया। कहा जाता है कि सड़क पर इकट्ठी भीड़ कनाईलाल की अर्थी को छूने के लिए एक दुसरे को धकेल रही थी। उनके पार्थिव शव को तेल से नहलाने के बाद फूलों से सजा दिया गया था। केवल पुरुष और युवा लड़के ही नहीं अपितु महिलाएं भी उनकी शवयात्रा का हिस्सा बनीं। अपने दल के सबसे नहासी और निर्भीक क्रांतिकारी के रूप में पहचाने जाने वाले कनाईलाल की इस शवयात्रा में ‘जय कनाई’ नाम से गगनभेदी जयकारे लग रहे थे। उस समय लोगों के ऊपर उनके इस बलिदान का कितना असर हुआ इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि उनकी अस्थियों को उनके एक समर्थक ने 5 रुपयों में खरीदा था।

मात्र बीस वर्ष की आयु में ही शहीद हो जाने वाले कनाईलाल दत्त ने अपने अंतिम दिनों में गीता और स्वामी विवेकानंद की किताबें पढ़ते हुए समय बिताया। अंतिम दिनों में उनका वजन लगभग चार किलो तक बढ़ गया था।उन्हें फांसी लगने से एक दिन पहले एक अंग्रेज वार्डन ने टोंट मारते हुए कहा कि “ये जो आज तुम इतना मुस्कुरा रहे हो, कट यही मुस्कान तुम्हारे होंठों से गायब हो जाएगी।”   संयोग से जब कनाईलाल को फांसी दी जाने वाली थी उस समय वो वार्डन वहीं मौजूद था। फांसी पर चढ़ने से कुछ ही देर पहले कनाईलाल ने मुस्कुराते हुए उसी अंग्रेज वार्डन से पूछा “बताइए, अभी मैं आपको कैसा लग रहा हूं।” उस वार्डन के पास कानाई के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था।

इस घरना ने उस वार्डन को अंदर तक झकझोर दिया था। कुछ दिन बाद उसने प्रोफेसर चारुचंद्र रॉय से कहा था कि “मैं पापी हूं जो कनाईलाल को फांसी चढ़ते देखता रहा। अगर उसके जैसे 100 क्रांतिकारी आपके पास हो जाएं तो आपको अपना लक्ष्य कर के भारत को आजाद करने में ज्यादा देर न लगे।”वो कनाईलाल जिसकी अस्थियां तक बिक गईं, जिसकी शवयात्रा में पूरा कलकत्ता उमड़ पड़ा, जिसका बलिदान एक अंग्रेज तक के मन को छू गया हमने उस क्रांतिकारी को कितना याद रखा है। जबकि ऐसे क्रांतिकारी जिन्होंने 20 साल की छोटी सी उम्र में खुद को देश पर कुर्बान कर दिया का बलिदान कभी भुलाया नहीं जाना चाहिए। आज उनके बलिदान दिवस पर उन्हें दिल से नमन करते हैं। इस बलिदान के लिए भारतवर्ष सदैव उनका ऋणी रहेगा। 

    कनाईलाल दत्त (Kanailal Dutta; जन्म- 30 अगस्त, 1888 ई. हुगली ज़िला, बंगाल; मृत्यु- 10 नवम्बर, 1908 ई., कोलकाता) भारत की आज़ादी के लिए फाँसी के फंदे पर झूलने वाले अमर शहीदों में से एक थे। इन्होंने 1905 में बंगाल के विभाजन का पूर्ण विरोध किया था। अपनी स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करके कनाईलालकोलकाता आ गये थे और बारीन्द्र कुमार के दल में शामिल हो गए। 1908 में मुजफ़्फ़रपुर के अंग्रेज़ अधिकारी किंग्सफ़ोर्ड पर हमला किया गया था। इस हमले में कनाईलाल दत्त, अरविन्द घोष, बारीन्द्र कुमार आदि पकड़े गये। इनके दल का एक युवक नरेन गोस्वामी अंग्रेज़ों का सरकारी मुखबिर बन गया।  अपने विद्यार्थी जीवन में कनाईलाल दत्त प्रोफ़ेसर चारुचंद्र राय के प्रभाव में आए। प्रोफ़ेसर राय ने चंद्रनगर में 'युगांतर पार्टी' की स्थापना की थी। कुछ अन्य क्रान्तिकारियों से भी उनका सम्पर्क हुआ, जिनकी सहायता से उन्होंने गोली का निशाना साधना सीखा।

1905 ई. के 'बंगाल विभाजन' विरोधी आन्दोलन में कनाईलाल ने आगे बढ़कर भाग लिया तथा वे इस आन्दोलन के नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के भी सम्पर्क में आये। बी.ए. की परीक्षा समाप्त होते ही कनाईलाल कोलकाता चले गए और प्रसिद्ध क्रान्तिकारी बारीन्द्र कुमार घोष के दल में सम्मिलित हो गए और यहाँ वे उसी मकान में रहते थे, जहाँ क्रान्तिकारियों के लिए अस्त्र-शस्त्र और बम आदि रखे जाते थे। अप्रैल, 1908 ई. में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर में किंग्सफ़ोर्ड पर आक्रमण किया। कनाईलाल दत्त और सत्येन बोस ने नरेन गोस्वामी को जेल के अंदर ही अपनी गोलियों का निशाना बनाने का निश्चय किया। पहले सत्येन बीमार बनकर जेल के अस्पताल में भर्ती हुए, फिर कनाईलाल भी बीमार पड़ गये। सत्येन ने मुखबिर नरेन गोस्वामी के पास संदेश भेजा कि मैं जेल के जीवन से ऊब गया हूँ और तुम्हारी ही तरह सरकारी गवाह बनना चाहता हँ। मेरा एक और साथी हो गया, इस प्रसन्नता से वह सत्येन से मिलने जेल के अस्पताल जा पहुँचा। फिर क्या था, उसे देखते ही पहले सत्येन ने और फिर कनाईलाल दत्त ने उसे अपनी गोलियों से वहीं ढेर कर दिया। दोनों पकड़ लिये गए और दोनों को मृत्युदंड मिला।

कनाईलाल के फैसले में लिखा गया कि इसे अपील करने की इजाजत नहीं होगी। 10 नवम्बर, 1908 को कनाईलाल कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में फांसी के फंदे पर लटकर शहीद हो गए। जेल में उनका वजन बढ़ गया था। फांसी के दिन जब जेल के कर्मचारी उन्हें लेने के लिए उनकी कोठरी में पहुँचे, उस समय कनाईलाल दत्त गहरी नींद में सोये हुए थे।