ऐसे कीजिए चित्रगुप्त जी की पूजा फिर यह सुनाये कथा ।




चित्रगुप्तChitragupta के जन्म की कथा । जब यमराज ने अपने सहयोगी की मांग की, तो ब्रह्मा ध्यान में चले गए। उनकी एक हजार वर्ष की तपस्या के बाद एक पुरूष उत्पन्न हुआ। इस पुरूष का जन्म ब्रह्मा जी की काया से हुआ था। इसलिए ये Kayastha कायस्थ कहलाये और इनका नाम चित्रगुप्त पड़ा।In the hands of Lord Chitragupta, there is a book of karma, pen, medicine. They are skilled writers and by their writings, the living beings get justice according to their deeds


ऐसा है स्वरूप भगवान चित्रगुप्त जी के हाथों में कर्म की Book किताब, pen कलम, दवात है। ये कुशल writers लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार justice न्याय मिलता है। कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को भगवान चित्रगुप्त की पूजा का विधान है।Yamraj  यमराज और चित्रगुप्त की पूजा एवं उनसे अपने बुरे कर्मों के लिए क्षमा मांगने से नरक का फल भोगना नहीं पड़ता है। इस संदर्भ में एक कथा यहां उल्लेखनीय है।

भगवान चित्रगुप्त की पूजन विधि- सबसे पहले पूजा स्थान को साफ कर एक चैकी बनाएं। उस पर एक कपड़ा विछा कर चित्रगुप्त का चित्र रखें।- दीपक जला कर गणपति जी को चंदन, हल्दी,रोली अक्षत, दूब ,पुष्प व धूप अर्पित कर पूजा अर्चना करें।- फल ,मिठाई और विशेष रूप से इस दिन के लिए बनाया गया पंचामृत (दूध ,घी कुचला अदरक ,गुड़ और गंगाजल )और पान सुपारी का भोग लगाएं।- परिवार के सभी सदस्य अपनी किताब, कलम,दवात आदि की पूजा करें और चित्रगुप्त जी के सामने रखें।- सभी सदस्य एक सफेद कागज पर चावल का आटा, हल्दी,घी, पानी व रोली से स्वस्तिक बनाएं। उसके नीचे पांच देवी देवतावों के नाम लिखें ,जैसे- श्री गणेश जी सहाय नमः ,श्री चित्रगुप्त जी सहाय नमः, श्री सर्वदेवता सहाय नमः ।- इसके नीचे एक तरफ अपना नाम पता व दिनांक लिखें और दूसरी तरफ अपनी आय व्यय का विवरण दें, इसके साथ ही अगले साल के लिए आवश्यक धन हेतु निवेदन करें। अब अपने हस्ताक्षर करें। और इसे पवित्र नदी में विसर्जित करें।

एक बार Yudhishthiraji युधिष्ठिरजी  Bhishmaji भीष्मजी से बोले- हे पितामह! आपकी कृपा से मैंने dharma shaastrधर्मशास्त्र सुने, परन्तु यमद्वितीया का क्या पुण्य है, क्या फल है यह मैं सुनना चाहता हूँ। आप कृपा करके मुझे विस्तारपूर्वक कहिए। भीष्मजी बोले- तूने अच्छी बात पूछी। मैं उस उत्तम व्रत को विस्तारपूर्वक बताता हूँ। कार्तिक मास के उजले और चैत्र के अँधेरे की पक्ष जो द्वितीया होती है, वह यमद्वितीया कहलाती है। युधिष्ठिरजी बोले- उस कार्तिक के उजले पक्ष की द्वितीया में किसका पूजन करना चाहिए और चैत्र महीने में यह व्रत कैसे हो, इसमें किसका पूजन करें?

भीष्मजी बोले- हे युधिष्ठिर, पुराण संबंधी कथा कहता हूँ। इसमें संशय नहीं कि इस कथा को सुनकर प्राणी सब पापों से छूट जाता है। सतयुग में नारायण भगवान् से, जिनकी नाभि में कमल है, उससे चार मुँह वाले ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, जिनसे वेदवेत्ता भगवान् ने चारों वेद कहे। नारायण बोले- हे ब्रह्माजी! आप सबकी तुरीय अवस्था, रूप और योगियों की गति हो, मेरी आज्ञा से संपूर्ण जगत् को शीघ्र रचो। हरि के ऐसे वचन सुनकर हर्ष से प्रफुल्लित हुए ब्रह्माजी ने मुख से ब्राह्मणों को, बाहुओं से क्षत्रियों को, जंघाओं से वैश्यों को और पैरों से शूद्रों को उत्पन्न किया।

उनके पीछे देव, गंधर्व, दानव, राक्षस, सर्प, नाग जल के जीव, स्थल के जीव, नदी, पर्वत और वृक्ष आदि को पैदा कर मनुजी को पैदा किया। इनके बाद दक्ष प्रजापतिजी को पैदा किया और तब उनसे आगे और सृष्टि उत्पन्न करने को कहा। दक्ष प्रजापतिजी से 60 कन्या उत्पन्न हुई, जिनमें से 10 धर्मराज को, 13 कश्यप को और 27 चंद्रमा को दीं।


कश्यपजी से देव, दानव, राक्षस इनके सिवाय और भी गंधर्व, पिशाच, गो और पक्षियों की जातियाँ पैदा हुईं। धर्मराज को धर्म प्रधान जानकर सबके पितामह ब्रह्माजी ने उन्हें सब लोकों का अधिकार दिया और धर्मराज से कहा कि तुम आलस्य त्यागकर काम करो। जीवों ने जैसे-जैसे शुभ व अशुभ कर्म किए हैं, उसी प्रकार न्यायपूर्वक वेद शास्त्र में कही विधि के अनुसार कर्ता को कर्म का फल दो और सदा मेरी आज्ञा का पालन करो। ब्रह्माजी की आज्ञा सुनकर बुद्धिमान धर्मराज ने हाथ जोड़कर सबके परम पूज्य ब्रह्माजी को कहा- हे प्रभो! मैं आपका सेवक निवेदन करता हूँ कि इस सारे जगत के कर्मों का विभागपूर्वक फल देने की जो आपने मुझे आज्ञा दी है, वह एक महान कर्म है।

आपकी आज्ञा शिरोधार्य कर मैं यह काम करूँगा कि जिससे कर्त्ताओं को फल मिलेगा, परन्तु पूरी सृष्टि में जीव और उनके देह भी अनन्त हैं। देशकाल ज्ञात-अज्ञात आदि भेदों से कर्म भी अनन्त हैं। उनमें कर्ता ने कितने किए, कितने भोगे, कितने शेष हैं और कैसा उनका भोग है तथा इन कर्मों के भी मुख्य व गौण भेद से अनेक हो जाते हैं एवं कर्ता ने कैसे किया, स्वयं किया या दूसरे की प्रेरणा से किया आदि कर्म चक्र महागहन हैं। अतः मैं अकेला किस प्रकार इस भार को उठा सकूँगा, इसलिए मुझे कोई ऐसा सहायक दीजिए जो धार्मिक, न्यायी, बुद्धिमान, शीघ्रकारी, लेख कर्म में विज्ञ, चमत्कारी, तपस्वी, ब्रह्मनिष्ठ और वेद शास्त्र का ज्ञाता हो।

धर्मराज की इस प्रकार प्रार्थनापूर्वक किए हुए कथन को विधाता सत्य जान मन में प्रसन्न हुए और यमराज का मनोरथ पूर्ण करने की चिंता करने लगे कि उक्त सब गुणों वाला ज्ञानी लेखक पुरुष होना चाहिए। उसके बिना धर्मराज का मनोरथ पूर्ण न होगा। तब ब्रह्माजी ने कहा- हे धर्मराज! तुम्हारे अधिकार में मैं सहायता करूँगा। इतना कह ब्रह्माजी ध्यानमग्न हो गए। उसी अवस्था में उन्होंने एक हजार वर्ष तक तपस्या की। जब समाधि खुली तब अपने सामने श्याम रंग, कमल नयन, शंख की सी गर्दन, गूढ़ शिर, चंद्रमा के समान मुख वाले, कलम, दवात और पानी हाथ में लिए हुए, महाबुद्धि, देवताओं का मान बढ़ाने वाला, धर्माधर्म के विचार में महाप्रवीण लेखक, कर्म में महाचतुर पुरुष को देख उसे पूछ कि तू कौन है?

तब उसने कहा- हे प्रभो! मैं माता-पिता को तो नहीं जानता, किन्तु आपके शरीर से प्रकट हुआ हूँ, इसलिए मेरा नामकरण कीजिए और कहिए कि मैं क्या करूँ? ब्रह्माजी ने उस पुरुष के वचन सुन अपने हृदय से उत्पन्न हुए उस पुरुष को हँसकर कहा- तू मेरी काया से प्रकट हुआ है, इससे मेरी काया में तुम्हारी स्थिति है, इसलिए तुम्हारा नाम कायस्थ चित्रगुप्त है। धर्मराज के पुर में प्राणियों के शुभाशुभ कर्म लिखने में उसका तू सखा बने, इसलिए तेरी उत्पत्ति हुई है। ब्रह्माजी ने चित्रगुप्त से यह कहकर धर्मराज से कहा- हे धर्मराज! यह उत्तम लेखक तुझको मैंने दिया है जो संसार में सब कर्मसूत्र की मर्यादा पालने के लिए है। इतना कहकर ब्रह्माजी अन्तर्ध्यान हो गए।

फिर वह पुरुष (चित्रगुप्त) Koti कोटि Nagar नगर को जाकर चण्ड-प्रचण्ड ज्वालामुखी Kaliji कालीजी के पूजन में लग गया। उपवास कर उसने भक्ति के साथ चण्डिकाजी की भावना मन में की। उसने उत्तमता से चित्त लगाकर ज्वालामुखी देवी का जप और स्तोत्रों से भजन-पूजन और उपासना इस प्रकार की- हे जगत् को धारण करने वाली! तुमको नमस्कार है, महादेवी! तुमको नमस्कार है। स्वर्ग, मृत्यु, पाताल आदि लोक-लोकान्तरों को रोशनी देने वाली, तुमको नमस्कार है। सन्ध्या और रात्रि रूप भगवती तुमको नमस्कार है। श्वेत वस्त्र धारण करने वाली सरस्वती तुमको नमस्कार है। सत, रज, तमोगुण रूप देवगणों को कान्ति देने वाली देवी, हिमाचल पर्वत पर स्थापित आदिशक्ति चण्डी देवी तुमको नमस्कार है।उत्तम और न्यून गुणों से रहित वेद की प्रवृत्ति करने वाली, तैंतीस कोटि देवताओं को प्रकट करने वाली त्रिगुण रूप, निर्गुण, गुणरहित, गुणों से परे, गुणों को देने वाली, तीन नेत्रों वाली, तीन प्रकार की मूर्ति वाली, साधकों को वर देने वाली, दैत्यों का नाश करने वाली, इंद्रादि देवों को राज्य देने वाली, श्री हरि से पूजित देवी हे चण्डिका! आप इंद्रादि देवों को जैसे वरदान देती हैं, वैसे ही मुझको वरदान दीजिए। मैंने लोकों के अधिकार के लिए आपकी स्तुति की है, इसमें संशय नहीं है।


ऐसी स्तुति को सुन देवी ने चित्रगुप्तजी को वर दिया। देवीजी बोलीं- हे चित्रगुप्त! तूने मेरा आराधन पूजन किया, इससे मैंने आज तुमको वर दिया कि तू परोपकार में कुशल अपने अधिकार में सदा स्थिर और असंख्य वर्षों की आयु वाला होगा। यह वर देकर दुर्गा देवीजी अन्तर्ध्यान हो गईं। उसके बाद चित्रगुप्त धर्मराज के साथ उनके स्थान पर गए और वह आराधना करने योग्य अपने आसन पर स्थित हुए।

उसी समय ऋषियों में उत्तम ऋषि सुशर्मा ने जिसको सन्तान की चाहना थी, उसने ब्रह्माजी का आराधन किया। तब ब्रह्माजी ने प्रसन्नता से उसकी iravati इरावती नाम की कन्या को पाकर चित्रगुप्त के साथ उसका विवाह किया। उस कन्या से चित्रगुप्त के आठ पुत्र उत्पन्न हुए , जिनके नाम यह हैं- Charu चारु, sucaru सुचारु,Chitra चित्र, Matiman,  मतिमान, Himavan, हिमवान, Chitracharu,चित्रचारु, Arun अरुण और आठवाँ ateendriy

 दूसरी जो मनु की कन्या दक्षिणा चित्रगुप्त से विवाही गई, उसके चार पुत्र हुए। उनके भी नाम सुनो-Bhanu, भानु, Vibhanu, विभानु, Vishwabhanuविश्वभानु औरViryavan वीर्य्यावान्। Chitragupta चित्रगुप्त के ये  twelveबारह sons पुत्र विख्यात हुए और पृथ्वी-तल पर विचरे। उनमें से Charu  चारु Mathuraji मथुराजी को गए और वहाँ रहने से mathur हुए। हे राजन् सुचारु गौड़ Sucharu Gaurबंगाल Bangal को गए, इससे वह Gaurगौड़ हुए।  and . These twelve sons of  became famous and roamed the earth-plane. Among them, went to  and stayed there and went to Mathura. O king  went to Bengal, because of this he became 

 

 

चित्र भट्ट नदी के पास के नगर को गए, इससे वे Bhatnagar भट्टनागर कहलाए। श्रीवास नगर में भानु बसे, इससे वहश्रीवास्तव Srivastava कहलाए। हिमवान अम्बा दुर्गाजी की आराधन कर अम्बा नगर में ठहरे इससे वह अम्बष्ट कहलाए। सखसेन नगर में अपनी भार्या के साथ मतिमान गए इससे वह सूर्यध्वज कहलाए और अनेक स्थानों में बसे अनेक जाति कहलाए।


उस समय पृथ्वी पर एक राजा जिसका नाम सौदास था, सौराष्ट्र नगर में उत्पन्न हुआ। वह महापापी, पराया धन चुराने वाला, पराई स्त्रियों में आसक्त, महाअभिमानी, चुगलखोर और पाप कर्म करने वाला था। हे राजन्! जन्म से लेकर सारी आयु पर्यन्त उसने कुछ भी धर्म नहीं किया। किसी समय वह राजा अपनी सेना लेकर उस वन में, जहाँ बहुत हिरण आदि जीव रहते थे, शिकार खेलने गया। वहाँ उसने निरंतर व्रत करते हुए एक ब्राह्मण को देखा। वह ब्राह्मण चित्रगुप्त और यमराजजी का पूजन कर रहा था।

यमद्वितीया का दिन था। राजा ने पूछा- महाराज! आप क्या कर रहे हैं? ब्राह्मण ने यम द्वितीया व्रत कह सुनाया। यह सुनकर राजा ने वहीं उसी दिन कार्तिक के महीने में शुक्ल पक्ष की द्वितीया को धूप तथा दीपादि सामग्री से चित्रगुप्तजी के साथ धर्मराजजी का पूजन किया। व्रत करके उसके बाद वह अपने घर में आया। कुछ दिन पीछे उसके मन को विस्मरण हुआ और वह व्रत भूल गया। याद आने पर उसने फिर से व्रत किया।

समयोपरान्त काल संयोग से वह राजा सौदास मर गया। यमदूतों ने उसे दृढ़ता से बाँधकर यमराजजी के पास पहुँचाया। यमराजजी ने उस घबराते हुए मन वाले राजा को अपने दूतों से पिटते हुए देखा तो चित्रगुप्तजी से पूछा कि इस राजा ने क्या कर्म किया? उस समय धर्मराजजी का वचन सुन चित्रगुप्तजी बोले- इसने बहुत ही दुष्कर्म किए हैं, परन्तु दैवयोग से एक व्रत किया जो कार्तिक के शुक्ल पक्ष में यमद्वितीया होती है, उस दिन आपका और मेरा गन्ध, चंदन, फूल आदि सामग्री से एक बार भोजन के नियम से और रात्रि में जागने से पूजन किया। हे देव! हे महाराज! इस कारण से यह राजा नरक में डालने योग्य नहीं है। चित्रगुप्तजी के ऐसा कहने से धर्मराजजी ने उसे छुड़ा दिया और वह इस यमद्वितीया के व्रत के प्रभाव से उत्तम गति को प्राप्त हुआ।

ऐसा सुनकर राजा युधिष्ठिर भीष्म से बोले- हे पितामह! इस व्रत में मनुष्यों को धर्मराज और चित्रगुप्तजी का पूजन कैसे करना चाहिए? सो मुझे कहिए। भीष्मजी बोले- यमद्वितीया के विधान को सुनो। एक पवित्र स्थान पर धर्मराज और चित्रगुप्तजी की मूर्ति बनाएँ और उनकी पूजा की कल्पना करें। वहाँ उन दोनों की प्रतिष्ठा कर सोलह प्रकार की व पाँच प्रकार की सामग्री से श्रद्धा भक्तियुक्त नाना प्रकार के पकवानों, लड्डुओं, फल, फूल, पान तथा दक्षिणादि सामग्रियों से धर्मराजजी और चित्रगुप्तजी का पूजन करना चाहिए। पीछे बारम्बार नमस्कार करें।

हे धर्मराजजी! आपको नमस्कार है। हे चित्रगुप्तजी! आपको नमस्कार है। पुत्र दीजिए, धन दीजिए सब मनोरथों को पूरे कर दीजिए। इस प्रकार चित्रगुप्तजी के साथ श्री धर्मराजजी का पूजन कर विधि से दवात और कलम की पूजा करें। चंदन, कपूर, अगर और नैवेद्य, पान, दक्षिणादि सामग्रियों से पूजन करें और कथा सुनें। बहन के घर भोजन कर उसके लिए धन आदि पदार्थ दें। इस प्रकार भक्ति के साथ यमद्वितीया का व्रत करने वाला पुत्रों से युक्त होता है और मनोवांछित फलों को पाता है।