शब्दों के वाण चलाने से बचें।


शब्द रूपी वाणों को ही महाभारत कराने का श्रेय जाता है।

महाभारत महाकाव्य का मुख्य पात्र "कर्ण" इसके सबसे बङा उदाहरण है,अगर कर्ण का सहारा दुर्योधन को नही मिला रहता तो संभवतः महाभारत की लङाई नही हुई होती, वैसे होनी प्रवल है। लेकिन ये भी बात सत्य है कि भविष्य में होने वाले घटनाओं का सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। भविष्य में क्या होना है और क्या नही होना है ये कोई नहीं जान पाया है।

हाँ तो बात शब्दो की वाण vs महाभारत की हो रही थी,चुकी कुल गुरू कृपाचार्य,आचार्य द्रोण और पितामह भीष्म के उपर दुर्योधन का अविश्वाश या इनके प्रति दुविधा था।

दुर्योधन सुरू से ही ये मानकर चल रहा था कि ये लोग किसी भी हाल में पांडवों का वध नही करेंगे, ऐसे में भरी सभा में कर्ण को सुतपुत्र कहकर पांडवों द्वारा अपमानित करना और दुर्योधन को भविष्य में अर्जुन के प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखते हुए,कर्ण की मित्रता प्राप्त करना,इसके उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।

ये दुर्योधन का एक ऐसा एहसान था की कर्ण को अपनी जान देकर उस एहसान का बदला चुकाना पङा था,जबकि कर्ण को भगवान श्री कृष्ण से पता चल चुका था वो पांडवों का सहोदर भाई ही नही बल्कि उनलोगों का अग्रज है।

इसलिए भले ही सचमुच का वाण चला लें,पर शब्दों के वाण चलाने से बचें।


अब आतें है,पांचाली द्रौपदी के तरफ!

जब पांडव हस्तिनापुर छोड़ कर अपनी दुसरी अलौकिक राजधानी बनाये तो युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के उत्सव पर सभी गणमान्यों सहीत हस्तिनापुर और दुर्योधन को भी निमंत्रण गया।

महल भ्रमण के दौरान दुर्योधन के नजरों ने धोखा खाया और वह जिसे समतल भुमी समझ रहा था वह एक छोटा सा जलाशय था,परिणाम स्वरूप वह उसमें जा गिरा।

इस घटना को पांचाली देख रही थी और देखकर हंस पङी तथा उसके मुख्य से कटु बचन निकल पङा कि "अंधे का बेटा अंधा" ये शब्दों का वो वाण था जो भरी सभा में द्रौपदी का चीर हरण का कारण बना और महाभारत का भी।

मित्रों इसलिए कटु और कङवे वचन कीसी को बोलने से पहले इसके परिणाम के बारे में एक बार जरूर विचार

 करें।