यम द्वितीया को 'भैया दोज' या 'भाई दूज' भी कहा जाता है। इससे पूर्व पर्वों की शृँखला दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस से ही शुरू हो जाती है। अगले दिन रूप चौदस, उससे अगले दिन दीपावली, फिर गोवर्द्धन पूजा एवं अन्तिम दिन यम द्वितीया।
यम द्वितीया पूरे देश में अलग-अलग तरीके से श्रद्धापूर्वक मनाई जाती है।
यम द्वितीया का धार्मिक, रोचक पक्ष यह है कि इस दिन मृत्यु लोक के राजा यम व श्री कृष्ण की पटरानी श्री यमुना का अद्भुत संगम होता है। पुराण कथा के अनुसार यम द्वितीया के दिन प्रथम कोटी के यमराज को उस दिन श्री यमुना की कृपा से लीला पुरुषोत्तम के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस दिन यमकाल का क्रूर देवता नहीं, मृत्युलोक का स्वामी नहीं वरन् देवताओं की उच्च श्रेणी में आ गया।
लोक मान्यता है कि जो भाई-बहिन यम द्वितीया के दिन यमुना में स्नान करते हैं, वे यमलोक की यातना से बचे रहते हैं। बहिनें अपने भाई के साथ स्नान के उपरान्त जल में ही खड़े होकर अपने भाई को तिलक करती हैं। उसके बाद भाई-बहिन यमुना जी और यमराज के मंदिरों में जाकर दर्शन करते हें। इस दिन बहिन अपने भाई को अपने घर पर मिष्टान्नयुक्त भोजन करवाती हैं। भाई भी अपनी बहिन को यथा श्रद्धा वस्त्र आदि भेंट करते हैं।
ग्रामीण अंचलों में इस दिन यमराज की परम्परागत कथा सुनी जाती है। उसके बाद ही बहिनें अपना उपवास समाप्त करती हैं और अपने भाई की दीर्घआयु की कामना करती हैं और यमराज से प्रार्थना करती हैं कि वह उसके भाई की दुघर्टनाओं से सदैव रक्षा करें। मथुरा में इस दिन नृत्य एवं भजन-कीर्तन के आयोजन होते हैं।
कायस्थ समाज के लोग ब्रह्मा की काया से उत्पन्न श्री चित्रगुप्त की पूजा-अर्चना कर कथा का श्रवण करते हैं। श्री चित्रगुप्त माँ सरस्वती को कागज पर साकार स्वरूप प्रदान करने वाले प्रथम पुरुष माने जाते हैं। साथ ही यह भी धारणा है कि श्री चित्रगुप्त ब्रह्माजी के आदेश से समस्त प्राणियों के अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा रखते हैं और तद्नुसार ही उनको स्वर्ग-नर्क की प्राप्ति होती है।
कायस्थ समाज के लोग श्री चित्रगुप्तजी की आराधना करते हुए दवात-कलम की पूजा कर उनके नाम पाती लिखकर प्रार्थना करते हैं कि वे उनको सद्बुद्धी दें, बुरे कार्य करने से बचाएँ एवं सरस्वती माँ की उन पर कृपा बनी रहे। ज्ञातव्य है कि कायस्थ समाज के लोग बुद्धिमान व लेखनी के धनी होते हैं। शासन में उनको महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति देकर उनकी सेवाओं का लाभ लिया जाता रहा है। यम द्वितीया के दिन गुड़, छीले चनेे, आखा धनिया एवं मिश्री-गुड़ को मिला कर प्रसाद बनाया जाता है।
श्री चित्रगुप्त के बारे में हमें पुराणों में प्रामाणिक जानकारी मिलती है। यम द्वितीया का वैज्ञानिक स्वरूप व महत्व भी है। डाॅ. फ्राइड के मतानुसार जो भले या बुरे काम ज्ञानवान प्राणियों द्वारा किए जाते हैं उनका सूक्ष्म चित्रण अन्तःचेतना में होता रहता है-वे कर्म रेखा बन जाती हैं और मिटती नहीं। डाॅ. मीवेन्स के मतानुसार मस्तिष्क में अगणित रेखाएँ होती हैं। निष्क्रिय, आलसी एवं विचारशून्य प्राणियों में ये ये रेखाएँ बहुत ही कम मिलती हैं। किन्तु कर्मनिष्ठ एवं बुद्धिमान में उनकी संख्या बढ़ी हुई होती है।
ये रेखाएँ शारीरिक एवं मानसिक कार्यों को संक्षिप्त एवं सूक्ष्म रूप से लिपिबद्ध करती हैं। भले-बुरे कार्यों का यह रेखांकन (जिसे प्रकट के शब्दों में अन्तःचेतना का संस्कार कहा जा सकता है।) पौराणिक चित्रगुप्त की वास्तविकता को सिद्ध करता है।
प्राणी के मन के दो भाग होते हैं-बहिर्मन एवं अन्तर्मन। बहिर्मन लोग, लालच, भय एवं स्वार्थ से प्रभावित रहता है, उस पर मायावी आवरण रहते हैं। जबकि अन्तर्मन ईष्वरीय ष्षक्ति होता है। वह सत्यरूपी आत्मा का तेज होता है। बाहर के न्यायाधीश को भ्रम में डाला जा सकता है किन्तु अन्तस में बैठे चित्रगुप्त की निष्पक्ष न्यायशीलता को झूठलाना सम्भव नहीं हो सकता।
वस्तुतः श्री चित्रगुप्त संहार व पूर्व जन्म के बीच के काल के निर्णायक देवता हैं। पाप-पुण्य का लेखा-जोखा लिख कर प्राणी का भाग्य निर्धारित करते हैं। यम उनकी अनुषंसा पर ही निर्णय देते हैं। तद्नुसार ही प्राणी अपने जीवनकाल में स्वर्ग-नर्क का अनुभव करता है।
यम द्वितीया का यह लोक पर्व हमें बुरे कार्यों से बचते हुए सत्कार्यों की ओर अग्रसर होते रहने की प्रेरणा देता है और वह सरस्वती उपासना से ही सम्भव है। दीपावली के त्योहार पर इसका विशेष महत्व है।
डाॅ. गिरीश नाथ माथुर
9414157541