सूखा, तपता पर्वत लेकिन...........डा. ब्रिजेश माथुर

 


ग़ज़ल...

 

सूखा, तपता  पर्वत  लेकिन, कुछ तो अच्छा था उसमें,

ढ़ूंढ़ा  तो  मीठे  पानी  का  निकला  इक  सोता उसमें।

 

बचपन   से  देखी  जो  हमने, एक  हवेली  खंडर  सी,

आज  खुदाई  में  निकला  है,चांदी    सोना  उसमें।

 

हर  घर में  बाग़ीचा अपना, कुछ  में कांटे  कुछ में गुल,

वो   ही   तो   पाएगा   प्यारे,  जो   तूने   बोया  उसमें।

 

आंखों  में रहती  थी  जिसके, एक  बुझी सी ख़ामोशी,

राख  कुरेदी  आज ज़रा तो , चमका इक शोला उसमें।

 

हीरा, पन्ना,  मोती, माणिक- कितना  कुछ  है सागर में,

वो  ही  ले पाया  उनको , जो  लगा गया गोता उसमें।

 

चाहे घर  छोटा  था अपना , लेकिन  अपने  पुरखों ने,

हमको छत देने की ख़ातिर इक इक संग जोड़ा उसमें।

 

मां बाप के वचन भले ही हमें कड़े लगे थे अक्सर

पर बसती थी गुरुबानी , कबिरा का दोहा उसमें।

..डा. ब्रिजेश  माथुर, अजमेर

कायस्थ टुडे के 1 जुलाई 2022 के अंक से साभार